सामाजिक जनतंत्र के बिना अधूरा लोकतंत्र

संजय उस कथित पिछड़ी जाति के युवक का नाम है जो अब अपने गांव में अपनी बारात अपने मनचाहे मार्ग से निकाल सकेगा। अपने आप में बहुत ही सामान्य दिखने वाली यह बात पिछले कुछ दिनों से अखबारों की सुर्खियां बनी हुई थी। उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले के गांव निजामपुर में इससे पहले कभी किसी दलित को गांव के दबंगों की बस्ती से बारात निकालने की इजाजत नहीं थी। परंपरा के नाम पर गांव के दबंग जाटवों को वह अधिकार देने के लिए तैयार नहीं थे, जो मनुष्य होने के नाते उन्हें मिलने चाहिए। उनका तर्क यही था कि ऐसा पहले कभी गांव में हुआ नहीं। लेकिन संजय का कहना है कि ऐसा अब तक न होना गलत था, इसी गलती को ठीक करना उसका मानवोचित अधिकार है ।वह मामले को न्यायालय तक ले गया। न्यायालय के आदेश पर प्रशासन ने दोनों पक्षों में 'सुलह' करा दी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह शादी अब शांतिपर्ण तरीके से हो जायेगी। हालांकि कथित दबंग इसे मजबूरी का सौदा कह रहे हैं। बहरहाल, यह पहली बार होगा जब गांव में किसी दलित की बारात इस तरह निकलेगी, लेकिन यह पहली बार नहीं है जब देश के किसी हिस्से में इस तरह की कोई घटना घट रही हो। कुछ ही दिन पहले एक अन्य युवक के घोडे पर चढने को 'अपराध' माना गया थाकछ दशक पहले तक राजस्थान के एक गांव में दलित ऊंची जाति वालों के सामने पड़ने पर जूते नहीं पहन सकते थे ।उम्मीद की गयी थी कि आजादी के बाद स्थिति बदलेगी। बदली भी। लेकिन यह 'बीमारी' जड से नहीं गयीकहीं कानून के दबाव में, कहीं राजनीति के दांव-पेच के चलते और कहीं समाज में आ रही जागति के कारण भी। जाति-प्रथा का कलंक कछ धुला है लेकिन निजामपूर जैसी घटनाएं यह याद दिला रही हैं कि समता. स्वतंत्रता, बंधता पर आधारित संविधान को अंगीकृत करने के बावजूद हम अभी भी जातीय मानसिकता से उबरे नहीं हैंविडम्बना यह भी है कि जातिवादी मानसिकता को हमारे राजनेताओं ने अपना हथियार बना रखा है। राजनेता, चाहे वह किसी रंग के झंडेवाला हो, वोटों के जातिवादी गणित का सहारा छोड़ना नहीं चाहता। इसी सबका मिलाजुला परिणाम यह है कि इक्कीसवीं शताब्दी में भी हम मानवीय समानता के बजाय तथाकथित ऊंची और नीची जातियों के समीकरण बनाने-बिगाड़ने में लगे हुए हैं। त्रासदी यह है कि हमारी राजनीति के कर्णधारों को यह सब करते हुए तनिक भी संकोच नहीं होता हमारे संविधान के प्रमुख शिल्पी बाबा साहेब अंबेडकर ने संविधान-सभा की आखिरी बैठक में एक चेतावनी दी थी। उन्होंने कहा था, 'अब हम विरोधाभासों के जीवन में प्रवेश कर रहे हैं। राजनीतिक दृष्टि से तो हम समान होंगे पर आर्थिक और सामाजिक जीवन में हम असमान ही होंगे; इस विरोधाभास में हम कब तक जीते रहेंगे? अम्बेडकर का यह सवाल आज भी गूंज रहा है। संजय जाटव आज जिस अधिकार की मांग कर रहा है, वह अधिकार सामाजिक समानता की उसी आवश्यकता को रेखांकित करता है, जिसकी बात 68 साल पहले हमारे संविधान निर्माता ने की थी। उन्होंने चेतावनी दी थी कि सामाजिक जनतंत्र के बिना हमारा जनतंत्र आधा-अधूरा ही रहेगा। दुर्भाग्य से, हमारी राजनीति आज भी इस आधे-अधूरे जनतंत्र की विडम्बना को समझने के लिए तैयार नहीं है। हमारे राजनेता बाबा साहेब अंबेडकर का नाम तो बहुत लेते हैं पर उनकी चेतावनी को सुनना-समझना नहीं चाहते। अपनी राजनीति की धार चमकाने के लिए हमारे नेता अंबेडकर का उपयोग अवश्य कर रहे हैं, उनका नाम लेते हैं, उनकी दुहाई भी देते हैं, लेकिन कुल मिलाकर सारा खेल राजनीतिक लाभ उठाने की आकांक्षा ही साबित होता है। हर पार्टी का नेता आज यह जताने की कोशिश करता दिखाई दे रहा है कि अंबेडकर का सच्चा अनुयायी वही है। दलितों के नाम पर चल रही पार्टियां, चाहे वह रिपब्लिकन पार्टी हो या बसपा, या भाजपा और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियां, सब स्वंय को अंबेडकर का भक्त बताने की प्रतियोगिता में लगी दिखाई दे रही हैं। कुछ ही अर्सा पहले हमारे प्रधानमंत्री ने अपने भाषणों में इस बात को बार-बार दोहराया था कि उनकी सरकार ने अंबेडकर के लिए जितना कुछ किया है, उतना पहले की किसी सरकार ने नहीं किया था। फिर वे अंबेडकर की मूर्तियां लगाने से लेकर अंबेडकर के नाम पर बनाये जाने वाले स्मारकों और पार्कों आदि की लंबी सूची पेश करते हैं। उदार कांग्रेसी नेता भी इस प्रतियोगिता में पीछे नहीं रहना चाहते । राहुल गांधी हर संभव अवसर पर दलितों के इस मसीहा की जय-जयकार करते सुनाई दे रहे हैं।